कोरबा छत्तीसगढ़– जब मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूँ तब सरकार देश की हरी भरी खुबसूरत जंगल  इलाके की जमीन को Coal block ( कोल ब्लाक ) आबंटन हेतु प्लान तैयार कर रही होगी, बहुतों की अधिग्रहण की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है | घनघोर जंगल,पक्षियों की दूर तक गूँजती आवाज, झरने की निर्मल पानी,खेत गाँव सब सरकारी आदेश से कुछ ही दिनों में बर्बाद हो जायेंगे | किसी ने कहा है कि लोग अच्छा काम करने के नाम पर दुनिया की सबसे बुरा काम कर डालते हैं | देश की विकास और बिजली बनाने के नाम पर कोयला निकालने के लिए सरकार इन खूबसूरत जंगल पहाड़ी क्षेत्र को कोल ब्लाक ( कोयला खनन ) हेतु उत्खनन का अधिकार प्राइवेट कम्पनी को  दे रही है | मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह वास्तविक आर्थिक उन्नति के लिए Deforestation वाली योजना की क्यों जरूरत है पेड़ काटना विकास नहीं है बल्कि भविष्य की बर्बादी की योजना है |कोयला खदान से क्या परेशानी होती है उसे सिर्फ खदान क्षेत्र के प्रभावित लोग जानते हैं  |

भारतीय जनता पार्टी और उनकी प्रमुख संस्था आरएसएस देशी और प्राकृतिक धरोहर को बचाने का दम भरती है | हकीकत आप देख रहे हैं | जब कोरोना काल के दौरान महीनों तक जब सम्पूर्ण देश और विश्व में आवागमन पर विराम लग गया था | यही वह समय था प्रकृति के घुटन पीड़ा को समझने का, हम सबने महसूस किया था जब सड़के वीरान हो चली थी, कारखानों का शोर थम गया था, भारी वाहनों की गड़गड़ाहट और धुल के बादल की दमघोंटू हवा की रफ्तार कम हो गयी थी | तब प्रकृति का मुरझाया चेहरा खिलने लगा था | नदी नालों के प्रवाह में बदलाव दिखाई देने लगा था और स्वच्छ निर्मल जल की धारा से नदियों का ओरिजिनल स्वरूप दिखाई देने लगा था,वायु प्रदूषण बहुत कम हो चूका था, लोगों ने देखा कि कई जंगली जानवरों और पक्षियों के झुण्ड सड़कों के आसपास विचरण करते हुए देखे गए थे | प्रकृति के लिए कोरोना काल स्वर्णिम समय था | कोरोना महामारी के रूप में प्रकृति का बर्ताव मानव को चेतावनी देने जैसा था, कि अब प्रकृति का शोषण बर्दाश्त नहीं |

जंगल की बर्बादी प्राकृतिक प्रकोप के मुख्य कारण

अत्यंत दुखद है कि समूचे विश्व के जंगल और खनिज समाप्त हो रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग की जानकारी के बावजूद भारत सरकार घनी हरियाली से आच्छादित वन क्षेत्रों में कोयला खदान खोलने के लिए आतुर है, सिर्फ अल्प कालिक फायदे के लिए। छत्तीसगढ़ में कई जगहों पर घने जंगलों को काटकर किसानों से ज़मीन लेकर खदान खोले गए हैं आगे खोले जायेंगे। जो लोग भारत के उन इलाकों में रहते हैं जहाँ खदान नहीं है उनको पता नहीं है कि खदान खोलने से आसपास के वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है। माइग्रेसन का दर्द कितना भयानक होता है दूर के लोंगो को अहसास नहीं होता है | भूविस्थापित गाँव को अन्यत्र स्थान पर बसाना सरकार की नज़र में अच्छा काम दिखता है। परन्तु मनुष्य उसी स्थान में फलता फूलता है जहाँ उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ मानसिक शांति की प्राप्ति हो। यदि ऐसा नहीं होता तो लोग क्यों पसंदीदा जगहों पर जाना चाहते हैं । प्राचीन समय में राजा महाराजा उन्हीं स्थान में अपनी राजधानी बनाते थे जो उनके अनुसार वह स्थान सभी दृष्टि से उपयुक्त हो। किसान को सरकारी दबाव के चलते ज़मीन देना पड़ता है और जमींन देने के बाद सबकी नौकरी नहीं लगती है। सरकार के सिद्धान्तिक बात में आप जायेंगे तो लगेगा कि खदान खुलने से किसानों के वारे न्यारे हो जाते होंगे उनके परिवार के लोंगों को नौकरी मिल जाती होगी। यह आंशिक सत्य है पर ब्यवहारिक कठिनाई इतनी विकट है अब गाँव के लोग खदान के लिए ज़मीन देना नहीं चाहते है । कोयला कंपनी के लोग सरकारी तंत्र के सहयोग से गाँव के ही किसी लालची ब्यक्ति को जो नेता टाइप होते है बहला फुसला कर उनके सहयोग से गाँव वालों से सहमती ले लेते थे, पर किसानों की परेशानी एवं अनुभव ने सचेत कर दिया है और अब नौकरी की लालच से भी किसान युवक जमीन देने को तैयार नहीं हो रहे हैं कोयला कम्पनी के लिए माइंस खोलने में दिक्कत आ रही है । कई प्रोजेक्ट ज़मीन अधिग्रहण के बाद भी खुल नहीं पा रहे हैं। ग्रामीण अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रहे हैं। नौकरी देने के नाम पर ग्रामीणों को तहसील आफिस कलेक्टर आफिस राजस्व विभाग और अन्य सरकारी उलझनों में उलझाया जाता है जिसे किसान झेल नहीं पाते हैं और बिना नौकरी लिए ही इलाके को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

अब तो भाजपा समर्थित मजदूर यूनियन बीएम्एस भी सरकार के मजदूर और किसान विरोधी रवैया का विरोध करने लगी है | सरकार के Commercial Mining का विरोध कोयला मजदूर कर ही रहे है |

क्यों लोग खदान के लिए जमीन देना नहीं चाहते है

इसका उत्तर इस लेख में देना संभव नहीं है परन्तु मैं संक्षिप्त में बताने का प्रयास कर रहा हूँ | सबसे बड़ी और संवेदनशील बात है कि खदान खुलने से डायरेक्ट जमीन देने वालों को कोई ज्यादा फायदा नहीं मिलता है | बल्कि प्रदुषण और ब्लास्टिंग से खदान प्रभावित इलाके के घरों में दरार आ जाती हैं | बारूद युक्त पानी को गाँव के खेतों या नालों में बहाया जाता है यह प्रचार किया जाता है कि किसानों की खेती के लिए कंपनी मुफ्त में पानी की सप्लाई कर रही है | प्रदूषित पानी से खेती की मिटटी और मित्र सुक्ष्म जीव ख़त्म हो जाते हैं | यदि खदान पूरी तरह से बंद या डिकोल हो जाता हैं तब एक विशाल खाई का निर्माण हो जाता है मेरी जानकारी अनुसार अभी तक भारत में कहीं भी इन खाइयों को भरा नहीं गया है | अंडर माइंस इलाके में जमीन धंस जाती हैं और अन्दर से आवाज आती है और ज्वालामुखी की तरह कोयले के धुवें से पूरा इलाका भर जाता है, इंसान के रहने लायक नहीं रहता है | कोल माइंस खोलने से लेकर बंद करने तक बहुत अच्छी अच्छी बातें गाइड लाइन्स के रूप में लिखी है, मगर भारत में कहीं अप्लाई नहीं होता है |

यदि आपने कोयला खदान के लिए जमीन दी तो तुरंत नौकरी नहीं मिलेगी | जमीन देने के बाद कोयला कंपनी के रूल्स का पालन करना अनिवार्य होता है | नियमानुसार  वही किसान नौकरी के लिए पात्र माने जाते हैं जिनकी जमीन की रकबा कंपनी द्वारा निर्धारित रकबे के बराबर या ज्यादा होगी | अगर नहीं तो जमीन देने के बाद भी नौकरी नहीं मिलती है,फिर भी आपको जमीन देना ही पड़ेगा | इसके अलावा आपको जमीन देने के बाद कोल माइंस सिस्टम के अनुसार वर्षों और कभी कभी कुछ मामलों में 10 से 15 वर्षों तक तहसीलदार आफिस और कलेक्टर आफिस, कोयला कम्पनी के राजस्व विभाग के चक्कर लगाने पड़ते है | भूविस्थापित को नौकरी के योग्य साबित करने में उम्र निकल जाती है | अगर भू-विस्थापित की नौकरी हेतु निश्चित उम्र की सीमा कार्यालय के चक्कर काटने में बीत जाती है तो उसके लिए प्रबंधन जिम्मेदार नहीं है | ऐसी स्थिति में  एजुकेशन सर्टिफिकेट का कोई मतलब नहीं होता है उनको अनपढ़ बनकर पूरी जिन्दगी नौकरी करना पड़ता है| मुआवजे की रकम बाजार भाव से कम होते हैं इससे किसान जरुरत के हिसाब से जमीन नहीं खरीद पाते हैं उनकी जोत के रकबे कम हो जाते हैं | इंतना संघर्ष और जमीन देने के बाद कोयला कंपनी में एक ब्यक्ति को नौकरी मिलती हैं | बाकी परिवार के सदस्य गरीब की श्रेणी में आ जाते हैं | गाँव के बड़े कास्तकारों को जो कोयला कंपनी के लिए सपोर्टर का काम करते हैं उन्हीं में से कुछ चुनिन्दा परिवारों को जल्दी नौकरी मिलती है मगर कोल कंपनी के सिस्टम को पालन करने के बाद | कोयला कंपनी या सरकार नहीं चाहती की सभी किसानो को नौकरी मिले, इसलिए कई तरह के कानूनी बरिअर लगाये जाते हैं | ताकि किसानों को कम से कम रोजगार की प्राप्ति हो |

किसान अकेले सिस्टम से लड़ता रहता है  

किसान के समर्थन में कोई नहीं आता है, जमीन देने के बाद किसान वर्षों तक अपनी लड़ाई स्वयं लड़ता रहता है, इसी चक्कर में जमीन से प्राप्त मुआवजे की रकम ख़त्म हो जाती है | सुनकर आपको आश्चर्य होगा की जमीन लेते या अखबारों में प्रेस कांफ्रेस के बहाने कोयला कंपनी और राज्य सरकार के जिम्मेदार अधिकारी किसानों की भलाई के लिए अच्छी बातें करते हैं, सहयोग देने की बाते करते हैं | मगर एक बार काम हो गया ,उसके बाद कोई नहीं सुनता | यद्यपि कोयला कंपनी सेंट्रल गवर्नमेंट के अधीन होती है मगर स्टेट गवर्नमेंट के अधिकारी कोयला कंपनी को ही पूर्ण सपोर्ट देते हैं | सरकारे जिसकी भी हो |

सबसे दुखदायी बात है कि एक बार भूविस्थापित की नौकरी लग गयी तो उसकी स्थिति खदान में अछूतों जैसी होती है | किसान जो जमीन देकर भूविस्थापित कहलाता है, बार बार लैंडऑस्टी (Landoustee) कहकर उसकी काबिलियत पर शक किया जाता है | जिन भूविस्थापितों की जमीन पर समूचे खदान का आधारशिला खड़ा हुआ है | जो सरकार के लिये देश की विकास के लिए अपने पुरखों की अचल सम्पति को दान दे देता है उसे दान दाता की इज्जत मिलना तो दूर उसे हेय की दृष्टि से देखा जाता है | किसानों की सहयोग के बिना खदान कभी नहीं खुल सकता था, जिनकी जमीन बलिदान देने के बदौलत हजारों लोंगों को नौकरी मिलती है | उसी भूविस्थापित को अधिकारी, और 10,12 वी पास करके आई टी आई के माध्यम से नौकरी प्राप्त करने वाले भूविस्थापित कहकर  खुल्लेआम मजाक उड़ाते हैं | भूविस्थापितों को कहा जाता है कि ये लोग जमीन देकर नौकरी प्राप्त किये हैं, इनकी योग्यता इस खदान के लायक नहीं है | गौरतलब है कि भूविस्थापितों में उच्च शिक्षा प्राप्त युवक हैं उन्हें इस बात की  जबदस्त शिकायत  है कि भले ही फाउंडर किसान की इज्जत न करें तो बेइज्जत भी न करें इससे इन कर्मचारियों का मनोबल गिरता है |

अगर भूविस्थापित जमीन नहीं देता तो खदान खुल सकता था ? क्या आई टी आई और अधिकारियों को नौकरी मिल सकती थी | बिलकुल नहीं, अगर देखें तो भूविस्थापित रोजगार मागने सरकार या कोयला कम्पनी के पास नहीं गया था कंपनी या सरकार की मजबूरी थी | सरकार ने इनकी अचल सम्पति के बदले में नौकरी दी है | इसके अलावा और भी अत्याचार भूविस्थापित  किसान ग्रामीणों पर होते हैं, इस लेख में देना संभव नहीं है |

कोयला खदान के लिए जंगल झरने खेती की जमीन की कुर्बानी

सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि कोयला खदान से ( ओपन कास्ट माइनिंग ) हजारों एकड़ जमीन के नेचुरल जंगल कट जाते हैं, धरती के स्ट्रक्चर और इको सिस्टम ख़राब हो जाता है, जंगल में जीने वाले हजारों पक्षियों जानवरों और किट पतंगों सुक्ष्म जोवों का नाश हो जाता है | वायु प्रदुषण,नॉइज़ प्रदुषण,छोटी छोटी प्राकृतिक झरने, नाले के  स्त्रोत ख़त्म हो जाते हैं | आसपास की जमीनों की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है | ग्रामीणों के मवेशी के लिए चारागाह की समस्या खाना बनाने के लिए इंधन की परेशानी होने लगती है | गैस खरीदना ग्रामीणों के बस की बात नहीं है |

कोरबा जिले में हाथी की ख़बरें सुर्ख़ियों में है जंगल  एरिया कम होने के परिणामस्वरूप  छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों के गाँव में हाथी धावा बोल रहे हैं कितने लोंगों की जान चली गयी है | हाथी घरों को तोड़ते हैं फसलों को बर्बाद करते हैं , ग्रामीणों को घर बार छोड़कर शिविरों में रहना पड़ता है | कुछ पशु प्रेमी जिन्हें मैं हिप्पोक्रेट एनिमल लवर कहना चाहूँगा वे लोग पशु बचाने का दिखावा करते हैं मगर जंगल बचाने की जिम्मेदारी ग्रामीणों पर छोड़ देते हैं | जब जंगल ही नहीं बचेंगे तो पशु प्रेम का क्या मतलब ? क्योंकि ये तथाकथित पशु प्रेमी सरकार को समझाने की कोशिश नहीं करते बल्कि अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए मूक दर्शक बन जाते हैं |

 

गाँव को कंपनी के द्वारा निर्धारित जगहों पर बसाया जाता है | इसमें सबसे बड़ी समस्या आती है बसाहट में, किसानों की मवेशी के लिए चारागाह और तालाब की समस्या शुरू हो जाती है | सरकारी बसाहट उनके लिए सरकारी केम्प जैसा लगता है | ग्रामीण संस्कृति ख़त्म हो जाता है और गाँव वालों के यह जीवन रास नहीं आता है | ये बात अलग है कि आरम्भ में कुछ ठीक लगता है | बच्चों को शहर के जैसा आभास होता है | मगर कुछ वर्षों बाद इन बसाहटों में गरीबों की तादात बढ़ने लगती है | भूविस्थापित रिटायर हो जाते हैं उसके बाद बच्चों के लिए संघर्ष आरम्भ | जब गाँव में थे तो भी संघर्ष था मगर उनके पास पुरखों की जमीन थी | घने जंगल थे प्रकृति वातावरण था | वनोपज का सहारा था | बहुत कुछ प्रकृति मुफ्त में प्रदान कर देती थी | मगर इस सरकारी केम्प में सब कुछ खरीदना है | आय के साधन ख़त्म वन भूमि और जमीन थे समाप्त |

मुझे तो ताज्जुब लगता है अपनी धरती की जंगल खनिज को बरबाद कर चंद लोंगों को रोजगार देकर सरकार इसे विकास का नाम देती है, जन कल्याण का काम कहती है | जंगल को काटकर, गावों को उजाड़कर, उपजाऊ जमीन से कोयला निकालकर वृहद् खाई के निर्माण करके कोई कैसे विकास का नाम दे सकता है | जबकि अब प्रकृति संकेत दे रही है पर्यावरण ख़राब हो रहे हैं |

सबसे बड़ा खतरा धरती के इको सिस्टम जियोलाजिकल सिस्टम पर पड़ता है | वैसे भी जंगल ख़त्म हो रहे हैं | सरकारी आंकड़े दिखाने के लिए कोयला कम्पनी कुछ सरकारी पेड़ लगा देती है | बाद में खदान विस्तार के नाम में काट लिए जाते हैं | सरकारी पेड़ और प्रकृति जंगली पेड़ में बहुत अंतर होता है | अब तक के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि विकास के नाम पर किया यह सृष्टि का विनाश बहुत मंहगा साबित होगा | अंत में कोयला उत्खनन के बाद कोयला कंपनी भाग जाती है जाहिर है इस स्थिति में सम्पूर्ण हरी भरी धरती हमेशा के लिए विशाल खाई में परिवर्तित हो जाता है |

आदिवासियों पर ही जंगल बचाने की नैतिक जिम्मेदारी क्यों

मेरी मुलाकात झारखण्ड प्रदेश के शिन्गभुम जिले के एक आदिवासी से हुई | उससे मिलने के बाद मुझे आदिवासियों के जंगल प्रेम के कारणों का पता चला | मैंने पूछा था कि आदिवासी जंगल पसंद करते हैं मगर जंगल के जानवरों का शिकार भक्षण भी करते हैं, ऐसा क्यों ?

उसने छोटी से बात कही कि हम आदिवासी जंगल के वनोपज पर और जानवर पर निर्भर रहते हैं | हम अपने को जंगल का जीव मानते हैं जिसमें जानवर और मानव तथा वन नदी के साथ जीवन जीना पड़ता है | छोटे ( बच्चे ) जानवर का शिकार नहीं करते और जंगल पर पूरी तरह से निर्भर रहने के कारण हमें जंगल की जरुरत होती है | जिंतना जंगल फलेगा फूलेगा और विस्तार होगा आदिवासियों के लिए हितकर है | इसीलिए हम जंगल, जानवर का संरक्षण करते हैं | जंगल हमारे लिए जीवनदायिनी है |

सिकुड़ते जंगल,सरकारी आंकड़े और जमीनी हकीकत में असमानता

वर्तमान सरकार ( भाजपा शासित ) द्वारा जारी रिपोर्ट में इंडिया स्टेट ऑफ़ फारेस्ट 2019 में दावा किया गया है की पिछले साल की तुलना में पुरे देश के जंगलों की किलोमीटर में 5188 की वृद्धि हुई है |

पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर ने 30 दिसंबर 2019 को इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट के माध्यम से खुलासा किया कि वन क्षेत्रों में बढ़ोतरी हो रही है | सरकार का पुरे देश में वन क्षेत्र की वृद्धि का लक्ष्य 33 % रखा गया है परन्तु अभी तक सरकार 24.52 % ही हो पाया है | लेकिन इसी रिपोर्ट में यह लिखा है कि संरक्षित वन क्षेत्रों के  जंगल घट रहे हैं | यह चिंता की बात है |

इस रिपोर्ट में  बहुत से ऐसे जंगल भी शामिल होंगें हैं जो सरकारी प्लांटेशन के तहत प्लांट किये गए होंगे | सवाल यह है कि प्राकृतिक जंगल की कटाई करने के बाद जो सरकारी पेड़ लगाये जाते हैं खासकर इंडस्ट्रियल क्षेत्रों में , ऐसे पेड़ बड़ी जल्दी बड़े हो जाते है जिससे इलाका भरा भरा दिखता है, लेकिन सरकारी पेड़ ज्यादातर भारतीय परिवेश के अनुसार नहीं होते हैं | रिपोर्ट में सरकारी प्लांटेशन वाले आंकड़े शामिल होंगे | हमने देखा हैं जिन इलाकों में ओपन कास्ट खदान खोली गयी किसानों की जमीन और जंगल काटकर | कोयला कम्पनी के वृक्षारोपण के बाद भी पहले जैसी जंगल नहीं बन पाए हैं | प्रदुषण की वजह से पेड़ों में ताजगी नहीं रहती है और हलकी बारिश तूफान में ऐसे पेड़ गिर जाते हैं | इलाके की धरती, जंगल ,गाँव का हमेशा के लिए सर्वनाश हो जाता है |

पेरिस अग्रीमेंट के प्रति प्रतिबध्दता या खानापूर्ति 

गौरतलब है कि अमेरिका चीन जैसे देशों की तुलना में भारत बहुत कम कार्बनडाईआक्साइड ( 1.83MT ) का उत्सर्जन करता है | विश्व के विकसित देश सबसे ज्यादा Co2 का उत्सर्जन कर रहे हैं   

पेरिस अग्रीमेंट पूरी दुनियां में क्लाइमेट चेंज ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए लीगली इंटरनेशनल ट्रीटी है इसका उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 Celsius तक कण्ट्रोल करना है या सीमित रखना है | विश्व के देशों के राष्ट्राध्यक्षों को पता है कि पर्यावरण ख़राब हो रहा है | दुःख की बात है भारत समेत सभी पावरफुल देश प्रदुषण कंट्रोल पर सीरियस नहीं हैं |

ग्लोबल वार्मिंग को लेकर भारत सहित पूरी दुनिया के लोग कितने संजीदा हैं इस बात से पता लग जाता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रम्प ने यूनाइटेड स्टेट की प्रतिबद्धता पर शंका करते हुए  पेरिस अग्रीमेंट से अलग हटने की बात कह डाली थी | जबकि अमेरिका बहुत ज्यादा कार्बनडाईआक्साइड  लगभग 15.74MT उत्सर्जन कर रहा है |

प्रकृति का संकेत,जंगल का विनाश, मानव के लिए प्रलय

आपने पढ़ा होगा प्रकृति में बहुत बदलाव हो रहे हैं मौसम अनियंत्रित हो रहे हैं कि ग्लेशियर बड़ी तेजी से पिघल रहे हैं | यह Deforestation का नतीजा है, पूरी दुनिया  में जंगल काटे जाने से वातावरण में Co2 ( कार्बनडाईआक्साइड ) की मात्रा बढ़ चुकी है | जंगल ख़त्म होने से पृथिवी का Eco system पर असर पढ़ रहा है | कई सुक्ष्म जीवों पर असर पढ़ रहा है | कई अनजान वीमारियों का हमला होने का खतरा है | अभी हम Covid- 19  के हमले से उबरने के लिए हल तलाश रहे हैं |

अखबारों में खबर छपी थी कि अचानक कई पक्षियों के ग्रुप एक साथ मर गए | कारण किसी को पता नहीं, वैज्ञानिक के लिए यह घटना खोज का विषय बन गया है |

आपको याद होगा सन 2013 जून में केदारनाथ में जबरदस्त अनियंत्रित और अचानक झील के तटबंध में दरार हो गयी फिर सारा पानी पहाड़ों को, पत्थरों को तोड़ता हुआ सामने जो भी मिला, जलधारा में समाहित हो गया | अचानक बाढ़ आने से भयंकर तबाही हुई थी | केदारनाथ धार्मिक स्थल भारत की जनता के लिए आस्था का केंद्र और पुराणों के अनुसार भगवान् शिव का स्थान | प्रकृति ने केदारनाथ की तबाही करके बता दिया कि मानव द्वारा निर्मित मंदिर,और धर्म के बिज़नेस को भगवान् का समर्थन नहीं है | भगवान् या प्रकृति स्वयं नहीं चाहती है कि केदारनाथ में लोग पूजा के नाम पर भीड़ इकट्ठा करें | मौज मस्ती के लिए केदारनाथ नहीं है | क्योंकि विकाश के नाम पर पहाड़ों को और जंगल को काटा जा रहा है  कल कारखाने खोले जा रहे हैं यह सृष्टि को कतई मंजूर नहीं लेकिन धर्म के ठेकेदारों, ब्यापारियों को प्रकृति और जंगल से क्या लेना देना | उनका काम है धार्मिक आस्था को बढ़ावा देकर ब्यापार करना |

दिनांक 07 फरवरी 2021 रविवार को ऐसे ही घटना की पुनरावृति चमोली में दिखाई दी है | जब तक हम जंगल और खनिज का अनियंत्रित दोहन करेंगे ऐसी त्रासदी के लिए तैयार रहना पड़ेगा |

दिनांक 13 फ़रवरी 2021 को जब मैं ब्लॉग लिख रहा था तब जबरदस्त भूकंप के झटके 6.3 मेगनीटयुड कश्मीर दिल्ली में महसूस किये गए थे | असामान्य अनियंत्रित वर्षा और पृथ्वी के जल स्तर में भारी गिरावट, झुलसा देनी वाली गर्मी | पर्यावरण ख़राब हो रहा है इसे अब किसी वैज्ञानिक से या सरकार से पूछने की जरुरत नहीं है यह अब स्पष्ट दिखाई दे रहा है | कोरोना का प्रकोप हम झेल रहे हैं | सरकार की नीति विकास के नाम पर  जंगल को काटेंगे परिणाम सबको झेलना पड़ेगा  | विश्व के जिम्मेदार लोंगो को विकास की नीति बदलना पड़ेगा कोयला या  जनहित के नाम पर खनिजों के उत्खनन के लिए जंगल को बर्बाद करना प्राइवेट कम्पनी को खदान खोलने का अधिकार देना लोकहित नहीं बल्कि ब्यापार है | जनता द्वारा ऐसी नीति पर सवाल जवाब करना या शक करना, लाजिमी है |

 नेचर की तरफ संकेत दिए जा रहे हैं कि प्रकृति के सिस्टम में खिलवाड़ न करें वर्ना प्रकृति का कुछ ना बिगड़ेगा बल्कि मानव जाति का ही समूचा विनाश हो जाएगा |

कोयले की खान पर आधारित उद्योग का अल्टरनेटिव सिस्टम खोजने की जरुरत

बिजली के निर्माण करने के लिए बहुधा कोयले पर आधारित ताप विद्युत् से इलेक्ट्रिक पैदा की जाती है | कोयले की आपूर्ति  के लिए धरती से कोयला निकाला जाता है | कोयला जंगल से आच्छादित जमीन में ही पाए जाते हैं | कोयले के लिए जंगल की कटाई और कोयला से बिजली बनाने में कार्बनडाईआक्साइड गैस का उत्सर्जन मतलब कोयला खदान से फायदा कम नुकसान ज्यादा है | कार्बनडाईआक्साइड के प्रदुषण से धरती की तापमान में वृद्दि हो रही है |

बिजली उत्पादन के लिए और भी वैकल्पिक तरीके हैं जैसे सोलर पॉवर, हाइड्रोइलेक्ट्रिक एनर्जी, वेव एनर्जी कनवर्टर, बाओफ्यूल, विंड एनर्जी सेटअप, गार्बेज से और भी बहुत से तरीके हो सकते हैं जिससे बिजली बनायीं जा सकती है | सरकार को और वैज्ञानिकों को बिजली उत्पादन के लिए कोयले के अलावा और कोई अल्टरनेटिव तरीका अपनाना पड़ेगा |

वर्तमान राजनीति के उद्ददेश, व्यवधान मुक्त व्यापार करना,सत्ता के पूर्ण कण्ट्रोल के साथ

आज भारत दुनिया का सबसे सक्सेसफुल लोकतंत्र है | दुनिया के तुलना में भारत में सबसे ज्यादा आजादी है | मगर धीरी धीरे राजनीतिक का व्यापारीकरण होने लगा है | ऐसा दिखाई दे रहा है कि जिन सरकार पर हम भरोसा कर रहे हैं उनका देश हित का राग अलापना राजनितिक स्टंट लगता है | क्योंकि राजा का अंतिम उद्देश्य जनहित होता है ब्यापार हित नहीं | आप जानते है अंग्रेज आये थे ब्यापार करने और फिर राज करने लगे | अंग्रेज विदेशी थे इसलिए भारत की संसाधनों को दुरूपयोग और शोषण किया | क्योंकि उनका मूल उद्देश्य भारत में पूर्ण सत्ता के साथ खुला व्यापार करना था | लेकिन जब भारत की गद्दी पर सत्तालोलुप नेता मुख्य राजनीति के हिस्सेदार बन जाये और अपनी प्रभाव से राजनीति को ब्यापार और धन कमाने का साधन बना लें, तो लगभग आज के स्थिति जैसी परिस्थिति निर्मित हो जाएगी | सरकार सिर्फ आदेश करेगी जनता से संवाद की प्रकिया बंद हो जाएगी वैसे ही जैसे अंग्रेजों के ज़माने में होती थी | सत्ता में बैठे लोग अपने ही देश में ब्यापार करने लग जाये और अपनी प्रजा को ब्यापार के साधन समझे ले फिर कुछ कहना लिखना बेकार है | भारत की जनता अगर 73 साल में भी राजनीति के असली स्वरुप को नहीं पहचान पाई है | यह वर्तमान सत्ता लोभी नेताओं की कुशल रणनीति का परिणाम कहा जा सकता है | जनप्रिय लुभावने नारों के प्रयोग और अंग्रेजों की “ फूट डालो और सत्ता का सुख भोगो वाली नीति के अनुसरण करके नेताओं ने भारत की जनता को लुभाने में सफलता प्राप्त कर ली है | महान क्रांतिकारी सरदार भगत सिंग ने लिखा है कि गोरे अंग्रेज भाग जायेंगे और काले अंग्रेज राज करेंगे आज के सन्दर्भ में बिलकुल फिट बैठता है |

सरकार को जनता ने बनाया है, देश को आगे ले जाने का सम्पूर्ण अधिकार दिया है वही धरती के अनमोल जंगल से ढकी खुबसूरत जमीन को कोयला खदान हेतु प्राइवेट संस्था को कोल ब्लाक आबंटित करेंगे उन कम्पनी को पूर्ण संरक्षण देंगे ताकि कंपनी राज शक्ति के सहारे मनमानी करे फायदे के लिए वन क्षेत्र का दुरूपयोग करे निश्चित जंगल गाँव बर्बाद हो जायेंगे | संभव है कि सरकार लोंगों को समझाने में कामयाब हो जाए कि जंगल की जमीन में कोयला  खदान खोलने से इलाके की जनता को नौकरी मिलेगी, तरक्की की शुरुवात होगी, लोंगो का विकास होगा | सरकार जिसकी भी हो राजनीति का एक ही चेहरा है सत्ता के सुख के साथ पूर्ण व्यापार| बाकी तो जन भावना को बहकाने के लिए बहुत नारे हैं | वर्तमान में राजनीति में ट्रेंड माइंड हेकर का डिमांड बढ़ गया जो जनता को उलझाने के लिए नवीनतम मुद्दे स्लोंगन की खोज कर सके | ताकि आगामी चुनाव में इन्हीं  मुद्दों के सहारे नेता जनता के द्वार जाएँ, चुनाव में विजयी हो और सत्ता सुख का पूर्ण कंट्रोल के साथ भोग करे |  आर्टिकल अच्छा लगे तो शेयर करें ताकि जंगल पर्यावरण को बचा सकें | साभार फोटो पिक्साबेय

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बलभद्र श्रीवास
ब्लॉगर फ्रीलान्स जर्नलिस्ट गोष्ठीमंथन

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